अट्ठारह पुराणों में भगवान महेश्वर की महान महिमा का बखान करनेवाला लिंग पुराण विशिष्ट पुराण कहा गया है। भगवान शिव के ज्योर्ति लिंगों की कथा, ईशान कल्प के वृत्तान्त सर्वविसर्ग आदि दशा लक्षणों सहित वर्णित है। भगवान शिव की महिमा का बखान लिंग पुराण में ११,००० श्लोकों में किया गया है। यह समस्त पुराणों में श्रेष्ठ है। वेदव्यास कृत इस पुराण में पहले योग फिर कल्प के विषय में बताया गया है।
लिंग शब्द के प्रति आधुनिक समाज में ब़ड़ी भ्रान्ति पाई जाती है। लिंग शब्द का शाब्दिक अर्थ चिन्ह अथवा प्रतीक है - जैसा कि कणाद मुनि कृत वैशेषिक दर्शन ग्रंथ में पाया जाता है। भगवान महेश्वर आदि पुरुष हैं। यह शिवलिंग उन्हीं भगवान शंकर की ज्योतिरूपा चिन्मय शक्ति का चिन्ह है। इसके उद्भव के विषय में सृष्टि के कल्याण के लिए ज्योर्ति लिंग द्वारा प्रकट होकर ब्रह्मा तथा विष्णु जैसों अनादि शक्तियों को भी आश्चर्य में डाल देने वाला घटना का वर्णन, इस पुराण के वर्ण्य विषय का एक प्रधान अंग है। फिर मुक्ति प्रदान करने वाले व्रत-योग शिवार्चन यज्ञ हवनादि का विस्तृत विवेचन प्राप्त है। यह शिव पुराण का पूरक ग्रन्थ है।
अनुक्रम
1 नैमिष में सूत जी की वार्ता
2 सृष्टि की प्राधानिक एवं वैकृतिक रचना
3 सृष्टि का प्रारम्भ
4 बाहरी कडियाँ
नैमिष में सूत जी की वार्ता
एक समय शिव के विविध क्षेत्रों का भ्रमण करते हुए देवर्षि नारद नैमिषारण्य में जा पहुँचे वहाँ पर ऋषियों ने उनका स्वागत अभिनन्दन करने के उपरान्त लिंगपुराण के विषय में जाननेहित जिज्ञासा व्यक्त की। नारद जी ने उन्हें अनेक अद्भुत कथायें सुनायी। उसी समय वहाँ पर सूत जी आ गये। उन्होंने नारद सहित समस्त ऋषियों को प्रणाम किया। ऋषियों ने भी उनकी पूजा करके उनसे लिंग पुराण के विषय में चर्चा करने की जिज्ञासा की।
उनके विशेष आग्रह पर सूत जी बोले कि शब्द ही ब्रह्म का शरीर है और उसका प्रकाशन भी वही है। एकाध रूप में ओम् ही ब्रह्म का स्थूल, सूक्ष्म व परात्पर स्वरूप है। ऋग साम तथा यर्जुवेद तथा अर्थववेद उनमें क्रमशः मुख जीभ ग्रीवा तथा हृदय हैं। वही सत रज तम के आश्रय में आकर विष्णु, ब्रह्म तथा महेश के रूप में व्यक्त हैं, महेश्वर उसका निर्गुण रूप है। ब्रह्मा जी ने ईशान कल्प में लिंग पुराण की रचना की। मूलतः सौ करोड़ श्लोकों के ग्रन्थ को व्यास जी ने संक्षिप्त कर के चार लाख श्लोकों में कहा। आगे चलकर उसे अट्ठारह पुराणों में बाँटा गया जिसमें लिंग पुराण का ग्यारहवाँ स्थान है। अब मैं आप लोगों के समक्ष वही वर्णन कर रहा हूँ जिसे आप लोग ध्यानपूर्वक श्रवण करें।
सृष्टि की प्राधानिक एवं वैकृतिक रचना
अदृश्य शिव दृष्य प्रपंच (लिंग) का मूल कारण है जिस अव्यक्त पुरुष को शिव तथा अव्यक्त प्रकृति को लिंग कहा जाता है वहाँ इस गन्धवर्ण तथा शब्द स्पर्श रूप आदि से रहित रहते हुए भी निर्गुण ध्रुव तथा अक्षय कहा गया है। उसी अलिंग शिव से पंच ज्ञानेद्रियाँ, पंचकर्मेन्द्रियाँ, पंच महाभूत, मन, स्थूल सूक्ष्म जगत उत्पन्न होता है और उसी की माया से व्याप्त रहता है। वह शिव ही त्रिदेव के रूप में सृष्टि का उद्भव पालन तथा संहार करता है वही अलिंग शिव योनी तथा वीज में आत्मा रूप में अवस्थित रहता है। उस शिव की शैवी प्रकृति रचना प्रारम्भ में सतोगुण से संयुक्त रहती है। अव्यक्त से लेकर व्यक्त तक में उसी का स्वरूप कहा गया है। विश्व को धारण करने वाली प्रकृति ही शिव की माया है जो सत-रज-तम तीनों गुणों के योग से सृष्टि का कार्य करती है।
वही परमात्मा सर्जन की इच्छा से अव्यक्त में प्रविष्ट होकर महत् तत्व की रचना करता है। उससे त्रिगुण अहं रजोगुण प्रधान उत्पन्न होता है। अहंकार से शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध यह पाँच तन्मात्रयें उत्पन्न हुईं। सर्व प्रथम शब्द से आकाश, आकाश से स्पर्श, स्पर्श से वायु, वायु से रूप, रूप से अग्नि, अग्नि से रस, रस से गन्ध, गन्ध से पृथ्वी उत्पन्न हुई। आकाश में एक गुण, वायु में दो गुण, अग्नि में तीन गुण, जल में चार गुण और पृथ्वी में शब्द स्पर्शादि पाँचों गुण मिलते हैं। अतः तन्मात्रा पंच भूतों की जननी हुई। सतोगुणी अहं से ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ तथा उभयात्मक मन इन ग्यारह की उत्पत्ति हुई। महत से पृथ्वी तक सारे तत्वों का अण्ड बना जो दस गुने जल से घिरा है। इस प्रकार जल को दस गुणा वायु ने, वायु को दस गुणा आकाश ने घेर रक्खा है। इसकी आत्मा ब्रह्मा है। कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों में कोटि त्रिदेव पृथक-पृथक होते हैं। वहीं शिव विष्णु रूप हैं।
सृष्टि का प्रारम्भ
इन्हें भी देखें: हिन्दू काल गणना
आन्ध्रप्रदेश के लेपक्षी गाँव में प्राचीन शिव लिं
लिंग पुराण शैव प्रधान पुराण है। यह पुराण दो भागों में विभक्त है। 163 अध्यायों में 11 हजार श्लोकों से संयुक्त इस पुराण में शिव की महिमा का विस्तार से वर्णन है। लिंग शब्द का अर्थ भगवान शिव की जननेन्द्रियों से नहीं अपितु उनकी पहचान चिह्न से है। जो अज्ञात तत्व का परिचय देता है। प्रधान प्रकृति ही लिंग का स्वरूप है।
प्रधानं प्रकृतिश्चेते पदार्हुलिंगयुत्ममं
गन्धवरण रसेहिनं शब्दस्पर्शादिवर्जितं (लिंग पुराण)
जिसका कोई प्राकृतिक गुण न हो, परिमाण न हो व परिमापन न हो सके वह परमात्मा लिंग (प्रकृति) का मूल है जो अव्यक्त निराकार है एवं अद्वितीय है, वही लिंग है।
प्रलय के समय जब भगवान विष्णु सो रहे थे तब उनकी नाभि से कमल के फूल में ब्रह्माजी की उत्त्पत्ति हुई तब वे विष्णु जी से बोले, तुम कौन हो जो निश्चिंत होकर सो रहे हो, ब्रह्मा माया से मोहित थे। जब भगवान विष्णु नही उठे तो ब्रह्माजी ने हाथ से धक्का देकर उन्हें जगाया। भगवान हँसते हुये बोले, ''वत्स बैठो''। वत्स कहते ही ब्रह्माजी को क्रोध आया, कहने लगे तुम जानते नहीं मैं कौन हूँ। मैं सृष्टिकर्ता ब्रह्मा हूँ।
भगवान विष्णु बोले, ''ब्रह्माजी जगत का कत्र्ता-हत्र्ता मैं हूँ, तुम तो मेरे अंश से उत्पन्न हुये हो, इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। यह सब माया का खेल है। ब्रह्माजी को यह बात अच्छी नहीं लगी और दोनों में विवाद होने लगा तो दयालु भगवान परब्रह्म शिव ज्योर्तिलिंग के रूप में प्रकट हुये। इस लिंग का न तो आदि का पता लगता न ही अन्त का। ब्रह्मा एवं विष्णु ज्योर्तिलिंग के बारे में पता करने हेतु चारों दिशाओं में गये लेकिन वे उसका छोर न पा सके। अन्त में वे दोनों थक कर अपने स्थान पर लौट आये एवं ज्योर्तिलिंग को साष्टांग प्रणाम किया। उन्हें ओंकार की ध्वनि सुनायी पड़ी और साथ ही भगवान शंकर ने उन्हें दर्शन दिये। भगवान विष्णु और ब्रह्माजी ने मिलकर ज्योर्तिलिंग की स्तुति की। स्तुति करने पर भगवान शंकर ने कहा कि ''मैं ही लिंग-स्वरूप हूँ, तुम दोनों मेरे ही अंश से उत्पन्न हुये हो एवं चारों ओर मेरी ही माया व्याप्त है।'' भगवान शंकर ने ब्रह्माजी से कहा कि तुम सृष्टि की रचना करो साथ ही विष्णु को सृष्टि के पालन का आदेश दिया और अन्त में मैं स्वयं सृष्टि का संहार करूंगा।
लिंग पुराण सुनने का फल:-
लिंग पुराण में साक्षात शिव का वास है। इस पवित्र पुराण के श्रवण करने से जीव का कल्याण हो जाता है। जैसे कुल्हाड़ी लकड़ी को काटती है, ठीक उसी प्रकार लिंग पुराण सुनने से मनुष्य के समस्त पाप अपने आप ध्वस्त हो जाते हैं एवं जीव शिवमय हो जाता है। जो लिंग पुराण सुनते हुये शिव अवतारों की कथा, लिंगोद्भव की कथा, रूद्रावतार की कथा, नन्दीश्वर आदि अवतारों को श्रद्धा से सुनता है, उसे मृत्यु के समय कष्ट नहीं भोगना पड़ता एवं शरीर का परित्याग करने के पश्चात् शिव लोक की प्राप्ति होती है।


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