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स्कन्द पुराण

 स्कन्दपुराण सबसे बड़ा पुराण है। भगवान स्कन्द के द्वारा कथित होने के कारण इसका नाम 'स्कन्दपुराण' है। इसमें बद्रिकाश्रम, अयोध्या, जगन्नाथपुरी, रामेश्वर, कन्याकुमारी, प्रभास, द्वारका, काशी, शाकम्भरी, कांची आदि तीर्थों की महिमा; गंगा, नर्मदा, यमुना, सरस्वती आदि नदियों के उद्गम की मनोरथ कथाएँ; रामायण, भागवतादि ग्रन्थों का माहात्म्य, विभिन्न महीनों के व्रत-पर्व का माहात्म्य तथा शिवरात्रि, सत्यनारायण आदि व्रत-कथाएँ अत्यन्त रोचक शैली में प्रस्तुत की गयी हैं। विचित्र कथाओं के माध्यम से भौगोलिक ज्ञान तथा प्राचीन इतिहास की ललित प्रस्तुति इस पुराण की अपनी विशेषता है। आज भी इसमें वर्णित विभिन्न व्रत-त्योहारों के दर्शन भारत के घर-घर में किये जा सकते हैं। 



इसमें लौकिक और पारलौकिक ज्ञानके अनन्त उपदेश भरे हैं। इसमें धर्म, सदाचार, योग, ज्ञान तथा भक्ति के सुन्दर विवेचनके साथ अनेकों साधु-महात्माओं के सुन्दर चरित्र पिरोये गये हैं। आज भी इसमें वर्णित आचारों, पद्धतियोंके दर्शन हिन्दू समाज के घर-घरमें किये जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त इसमें भगवान शिव की महिमा, सती-चरित्र, शिव-पार्वती-विवाह, कार्तिकेय-जन्म, तारकासुर-वध आदि का मनोहर वर्णन है।[1] 


इस पुराण के माहेश्वरखण्ड के कौमारिकाखण्ड के अध्याय २३ में एक कन्या को दस पुत्रों के बराबर कहा गया है- 


दशपुत्रसमा कन्या दशपुत्रान्प्रवर्द्धयन्। 


यत्फलं लभते मर्त्यस्तल्लभ्यं कन्ययैकया॥ २३.४६ ॥ 


( एक पुत्री दस पुत्रों के समान है। कोई व्यक्ति दस पुत्रों के लालन-पालन से जो फल प्राप्त करता है वही फल केवल एक कन्या के पालन-पोषण से प्राप्त हो जाता है। 


यह खण्डात्मक और संहितात्मक दो स्वरूपों में उपलब्ध है। दोनों स्वरूपों में ८१-८१ हजार श्लोक परंपरागत रूप से माने गये हैं। खण्डात्मक स्कन्द पुराण में क्रमशः माहेश्वर, वैष्णव, ब्राह्म, काशी, अवन्ती (ताप्ती और रेवाखण्ड) नागर तथा प्रभास - ये सात खण्ड हैं। संहितात्मक स्कन्दपुराण में सनत्कुमार, शंकर, ब्राह्म, सौर, वैष्णव और सूत - छः संहिताएँ हैं। 


अनुक्रम 


1 विस्तार 


1.1 संरचना 


2 संक्षिप्त वर्णन[2] 


2.1 माहेश्वरखण्ड 


2.2 वैष्णव-खण्ड 


2.3 ब्रह्मखण्ड 


2.4 काशीखण्ड 


2.5 अवन्तीखण्ड 


3 सन्दर्भ 


4 बाहरी कड़ियाँ 


विस्तार 


स्कन्द पुराण कथित रूप में एक शतकोटि पुराण है, जिसमें शिव की महिमा का वर्णन किया गया है। उसके सारभूत अर्थ का व्यासजी ने स्कन्दपुराण में वर्णन किया है। स्कन्द पुराण इक्यासी हजार श्लोकों से युक्त है एवं इसमें सात खण्ड हैं। पहले खण्ड का नाम माहेश्वर खण्ड है, इसमें बारह हजार से कुछ कम श्लोक हैं। दूसरा वैष्णवखण्ड है, तीसरा ब्रह्मखण्ड है। चौथा काशीखण्ड एवं पाँचवाँ अवन्तीखण्ड है; फिर क्रमश: नागर खण्ड एवं प्रभास खण्ड है।[2] 


स्कन्द पुराण के कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। प्राचीन संस्करणों में नवल किशोर प्रेस, लखनऊ एवं वेंकटेश्वर प्रेस, बंबई के संस्करण हैं। इन दोनों संस्करणों के साथ-साथ एक बांग्ला संस्करण के आधार पर भी स्कन्द पुराण के पाँच खण्डों का संपादित संस्करण 1960-62 ई० में मनसुखराय मोर, 5 क्लाइव राॅ, कलकत्ता से छह जिल्दों में प्रकाशित हुआ। इसी के साथ नागर तथा प्रभास खण्ड को भी मिलाकर सम्पूर्ण स्कन्द पुराण (मूलमात्र) अब चौखम्बा संस्कृत सीरीज ऑफिस, वाराणसी से प्रकाशित है।[3] इसी संस्करण से श्लोकों की गणना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि स्कन्द पुराण में कालान्तर में कम से कम तेरह हजार श्लोक प्रक्षिप्त रूप में शामिल हो गये हैं। श्लोकों की कुल संख्या 81,100 की अपेक्षा 94,410 हो गयी हैं; जबकि कुल संख्या विभिन्न पुराणों में उल्लिखित संख्या (81,100) से कुछ हजार कम ही होनी चाहिए थी, क्योंकि पुराणगत प्राचीन गणना में श्लोकों के साथ उवाचों की संख्या भी मिली रहती थी। यह स्वतंत्र शोध का विषय है। बहरहाल यहाँ उक्त संस्करण से अध्याय सहित श्लोकों की सम्पूर्ण संख्या दी जा रही है। 


स्कन्द पुराण में विभिन्न उपखण्डों को समाहित करते हुए सम्मिलित रूप में कुल सात खण्ड हैं, जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है- 


माहेश्वरखण्ड 


पहले खण्ड का नाम माहेश्वर खण्ड है, यह परम पवित्र तथा विशाल कथाओं से परिपूर्ण है, इसमें सैकडों उत्तम चरित्र है। माहेश्वर खण्ड के भीतर केदार माहात्मय में पुराण आरम्भ हुआ है, उसमें पहले दक्ष यज्ञ की कथा है, इसके बाद शिवलिंग पूजन का फ़ल बताया गया है, इसके बाद समुद्र मन्थन की कथा और देवराज इन्द्र के चरित्र का वर्णन है, फ़िर पार्वती का उपाख्यान और उनके विवाह का प्रसंग है, तत्पश्चात कुमार स्कन्द की उत्पत्ति और तारकासुर के साथ उनके युद्ध का वर्णन है, फ़िर पाशुपत का 

स्कन्द पुराण' के ब्रह्मोत्तर खण्ड में कथा आती हैः काशी नरेश की कन्या कलावती के साथ मथुरा के दाशार्ह नामक राजा का विवाह हुआ। विवाह के बाद राजा ने अपनी पत्नी को अपने पलंग पर बुलाया परंतु पत्नी ने इन्कार कर दिया। तब राजा ने बल-प्रयोग की धमकी दी। 


पत्नी ने कहाः "स्त्री के साथ संसार-व्यवहार करना हो तो बल-प्रयोग नहीं, स्नेह-प्रयोग करना चाहिए। नाथ ! मैं आपकी पत्नी हूँ, फिर भी आप मेरे साथ बल-प्रयोग करके संसार-व्यवहार न करें।" 


आखिर वह राजा था। पत्नी की बात सुनी-अनसुनी करके नजदीक गया। ज्यों ही उसने पत्नी का स्पर्श किया त्यों ही उसके शरीर में विद्युत जैसा करंट लगा। उसका स्पर्श करते ही राजा का अंग-अंग जलने लगा। 


वह दूर हटा और बोलाः "क्या बात है? तुम इतनी सुन्दर और कोमल हो फिर भी तुम्हारे शरीर के स्पर्श से मुझे जलन होने लगी?" 


पत्नीः "नाथ ! मैंने बाल्यकाल में दुर्वासा ऋषि से शिवमंत्र लिया था। वह जपने से मेरी सात्त्विक ऊर्जा का विकास हुआ है। जैसे, अँधेरी रात और दोपहर एक साथ नहीं रहते वैसे ही आपने शराब पीने वाली वेश्याओं के साथ और कुलटाओं के साथ जो संसार-भोग भोगे हैं, उससे आपके पाप के कण आपके शरीर में, मन में, बुद्धि में अधिक है और मैंने जो जप किया है उसके कारण मेरे शरीर में ओज, तेज, आध्यात्मिक कण अधिक हैं। इसलिए मैं आपके नजदीक नहीं आती थी बल्कि आपसे थोड़ी दूर रहकर आपसे प्रार्थना करती थी। आप बुद्धिमान हैं बलवान हैं, यशस्वी हैं धर्म की बात भी आपने सुन रखी है। फिर भी आपने शराब पीनेवाली वेश्याओं के साथ और कुलटाओं के साथ भोग भोगे हैं।" 


राजाः "तुम्हें इस बात का पता कैसे चल गया?" 


रानीः "नाथ ! हृदय शुद्ध होता है तो यह ख्याल आ जाता है।" 


राजा प्रभावित हुआ और रानी से बोलाः "तुम मुझे भी भगवान शिव का वह मंत्र दे दो।" 


रानीः "आप मेरे पति हैं। मैं आपकी गुरु नहीं बन सकती। हम दोनों गर्गाचार्य महाराज के पास चलते हैं।" 


दोनों गर्गाचार्यजी के पास गये और उनसे प्रार्थना की। उन्होंने स्नानादि से पवित्र हो, यमुना तट पर अपने शिवस्वरूप के ध्यान में बैठकर राजा-रानी को निगाह से पावन किया। फिर शिवमंत्र देकर अपनी शांभवी दीक्षा से राजा पर शक्तिपात किया। 


कथा कहती है कि देखते-ही-देखते कोटि-कोटि कौए राजा के शरीर से निकल-निकलकर पलायन कर गये। काले कौए अर्थात् तुच्छ परमाणु। काले कर्मों के तुच्छ परमाणु करोड़ों की संख्या में सूक्ष्म दृष्टि के द्रष्टाओं द्वारा देखे गये हैं। सच्चे संतों के चरणों में बैठकर दीक्षा लेने वाले सभी साधकों को इस प्रकार के लाभ होते ही हैं। मन, बुद्धि में पड़े हुए तुच्छ कुसंस्कार भी मिटते हैं। आत्म-परमात्माप्राप्ति की योग्यता भी निखरती है। व्यक्तिगत जीवन में सुख-शांति, सामाजिक जीवन में सम्मान मिलता है तथा मन-बुद्धि में सुहावने संस्कार भी पड़ते हैं। और भी अनगिनत लाभ होते हैं जो निगुरे, मनमुख लोगों की कल्पना में भी नहीं आ सकते। मंत्रदीक्षा के प्रभाव से हमारे पाँचों शरीरों के कुसंस्कार व काले कर्मों के परमाणु क्षीण होते जाते हैं। थोड़ी-ही देर में राजा निर्भार हो गया और भीतर के सुख से भर गया। 


शुभ-अशुभ, हानिकारक व सहायक जीवाणु हमारे शरीर में ही रहते हैं। पानी का गिलास होंठ पर रखकर वापस लायें तो उस पर लाखों जीवाणु पाये जाते हैं यह वैज्ञानिक अभी बोलते हैं, परंतु शास्त्रों ने तो लाखों वर्ष पहले ही कह दिया। 


सुमति-कुमति सबके उर रहहिं। 


जब आपके अंदर अच्छे विचार रहते हैं तब आप अच्छे काम करते हैं और जब भी हलके विचार आ जाते हैं तो आप न चाहते हुए भी कुछ गलत कर बैठते हैं। गलत करने वाला कई बार अच्छा भी करता है। तो मानना पड़ेगा कि मनुष्य शरीर पुण्य और पाप का मिश्रण है। आपका अंतःकरण शुभ और अशुभ का मिश्रण है। जब आप लापरवाह होते हैं तो अशुभ बढ़ जाता है। अतः पुरुषार्थ यह करना है कि अशुभ क्षीण होता जाय और शुभ पराकाष्ठा तक, परमात्म-प्राप्ति तक पहुँच जाय।

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